हाल ही में हुए कर्नाटक विधानसभा उप-चुनाव के नतीजों ने दिखाया कि दल-बदल विरोधी कानून की महत्वपूर्णता बढ़ रही है। कुछ विधायक उप-चुनावों में जीत करके मंत्री बन रहे हैं, लेकिन वे अयोग्य थे। यह चुनौती दल-बदल विरोधी कानून को सुधारने की दिशा में इशारा करती है। इस घटना ने चुनावी दलों के बीच इस कानून के गलत इस्तेमाल का उदाहरण दिया है और यह संभावना है कि भविष्य में भी ऐसी घटनाएँ घट सकती हैं।
दलबदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law) भारतीय लोकतंत्र में विधायकों द्वारा दल बदलने की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। यह तर्क दिया जा सकता है कि विधायक अपनी पार्टी के साथ स्थिर रहने के लिए कैबिनेट को पारित वोट नहीं देने की स्थिति में आ सकते हैं, जिसका निर्वाचित विधायकों के समर्थन पर निर्भर होता है। इस तरीके की अस्थिरता के चलते लोगों में जनादेश के प्रति विश्वास कम हो सकता है, जैसा कि हाल के चुनावों में देखा गया था। इस परिस्थिति को सुधारने के लिए, 2003 में संसद ने भारतीय संविधान में नौवें संशोधन को पारित किया, जिसके माध्यम से दलबदलुओं की अयोग्यता के प्रावधानों को सुदृढ़ किया और उन्हें कुछ समय के लिए मंत्रियों के रूप में नियुक्त करने पर प्रतिबंध लगा दिया।
एक लोकतांत्रिक देश में, चुनाव लोगों को अपनी इच्छा का एक महत्वपूर्ण मौका प्रदान करते हैं, लेकिन कुछ लोगों का तर्क है कि चुनावी प्रक्रिया में होने वाले राजनीतिक दल-बदल के घटनाक्रम लोगों की व्यक्त इच्छा को कमजोर कर सकते हैं। इस तरह की दल-बदल की सामाजिक और सियासी प्रक्रिया भारत में पहले से ही मौजूद थी। इसका प्रारंभिक चरण 1960 के आसपास से हुआ था और इसने गठबंधन राजनीति के उदय को देखा, जिसके बाद दल-बदल की घटनाओं में वृद्धि हुई क्योंकि चुने गए प्रतिनिधियों मंत्रिमंडल में जगह पाने की मांग करने लगी।
दल-बदल विरोधी कानून क्या है?
सन 1985 में, 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से ‘दल-बदल विरोधी कानून’ भारत में लागू किया गया। इसके साथ ही, संविधान की दसवीं अनुसूची में जिसमें यह कानून शामिल है, उसमें भारत को संविधान से जोड़ दिया गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य था कि भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की अनुसूचित प्रथा को समाप्त किया जाए, जो 1970 के दशक से पहले भारतीय राजनीति में प्रचलित थी।
दल-बदल विरोधी कानून के मुख्य प्रावधान
दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी विधायक को अयोग्य घोषित किया जा सकता है यदि:
- एक निर्वाचित सदस्य अपनी स्वेच्छा के साथ से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
- कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य भी अपनी मर्जी से किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
- सदन में, कोई सदस्य द्वारा पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है।
- कोई सदस्य वोटिंग में खुद को अलग रखता है।
- छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
अयोग्य घोषित करने की शक्ति
कानून के अनुसार, सदन के प्रमुख के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने की शक्ति होती है। यदि सदन के प्रमुख के द्वारा संबंधित दल से किसी शिकायत की जाती है, तो सदन किसी अन्य चुने गए सदस्य को इस मामले में निर्णय लेने का अधिकार रखता है।
दल-बदल का अर्थ –
यदि कोई चुने गए सांसद या विधायक अपने दल की सदस्यता छोड़ता है, तो उसकी सदस्यता रद्द या अमान्य कर दी जाती है। सदन में दल के निर्देशों का उल्लंघन करने वाले सांसद या विधायक, या उनके निर्देशों के खिलाफ मतदान करने वाले को भी अयोग्य घोषित किया जाता है, लेकिन सामान्य विधेयक पर यह नियम लागू नहीं होता।
सदन में तीन प्रकार के सदस्य होते हैं –
- किसी दल के निर्वाचित सदस्य – जो किसी दल से चुनकर आया है और उसने दल के निर्देशों की अवहेलना की हो तो उसकी सदस्यता रद्द या अयोग्य कर दी जाती है।
- स्वतंत्र निर्वाचित सदस्य (निर्दलीय सदस्य) – यदि निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी दल की सदस्यता प्राप्त कर लेता है, तो उसकी सदस्यता रद्द या अयोग्य हो जाती है। (
- मनोनीत सदस्य – यदि मनोनीत सदस्य छह महीने के बाद किसी दल की सदस्यता प्राप्त कर लेता है, तो उसकी सदस्यता रद्द या अयोग्य घोषित की जाती है।
दल बदल की समस्या
दल बदल एक राजनीतिक विधी है जिसमें विधायक या सांसद अपने दल को छोड़कर दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं। यह विधी चुनावी वक्त में अपनी सदस्यता रद्द करने का एक तरीका है, जिससे सरकार में परिवर्तन आ सकता है। हालांकि, दल बदल की यह प्रक्रिया राजनीतिक स्थितियों में संविदानिक और नैतिक उल्लंघनों का विषय बन गई है।
- सरकार के अस्थायी होने की संभावना यानी बार-बार चुनाव होने की आवश्यकता होगी, जिससे गंभीर समस्या उत्पन्न हो सकती है। इस स्थिति में, अध्यक्षीय शासन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, बजाय संसदीय शासन की।
- “आया राम गया राम” की तरह दल बदलना उन घटनाओं को कहते हैं जिनमें एक ही दिन में एक विधायक ने छः पार्टियों को बदल दिया था।
- चुनाव होते ही हर दल अपना चुनावी घोषणा पत्र प्रस्तुत करता है, जिसे ‘मेनिफेस्टो’ कहा जाता है। अगर विजयी दल के विधायक या सांसद अपने दल को छोड़ रहा है, तो यह जनादेश को भी उल्लंघन करता है, क्योंकि मतदाता एक व्यक्ति को चुनाव नहीं देते, बल्कि उनके दल या पार्टी को चुनते हैं।
दल बदल के अपवाद:
- सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) का निर्णय।
- यदि किसी दल द्वारा किसी सांसद या विधायक को उनके दल से निष्कासित कर दिया जाता है।
- यदि किसी दल के निर्वाचित सदस्यों के 2/3 और अन्य दल में विलय होता है, या कोई नया दल बनाया जाता है, तो उनकी सदस्यता रद्द नहीं होती।
दल बदल का मुख्य उद्देश्य:
- सरकार की अस्थिरता को रोकना।
- सांसद या विधायक को दल के निर्देशों के अनुसरण का अधीन होना।
- कभी-कभी दल का हित जनता की इच्छाओं के आधार पर महत्वपूर्ण हो जाता है।
निर्धारण:
सदस्यता रद्द या अयोग्य घोषित करने की यह शक्ति केवल सदन के अध्यक्ष (स्पीकर) को है। इसके बावजूद, कई बार विवाद उत्पन्न हुआ है क्योंकि स्पीकर कभी-कभी दल के हितों के लिए अयोग्यता को निर्धारित करने में विलंब कर देते हैं।
Click to View Law Commission of India.
इन सभी विवादों पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय हुआ:
विद्याधर नागर विवाद (1994) – इसमें यह निर्धारित किया गया कि सदन के अध्यक्ष का निर्णय न्यायिक परीक्षण के अधीन हो सकता है।
नाबेम राविया विवाद – इसमें यह निर्धारण किया गया कि यदि सदन के अध्यक्ष को पद से हटाने की नोटिस दी गई है, तो उन्हें विधायिका को अयोग्य घोषित नहीं कर सकता।
दल-बदल मौजूदा समय में कानून की प्रासंगिकता
मौजूदा समय में कानून की प्रासंगिकता एक महत्वपूर्ण और चुनौती पूर्ण मुद्दा है। तकनीकी, सामाजिक, और राज नैतिक परिवर्तनों के साथ, कानूनों को अद्यतित (वर्तमान) और सबसे अच्छे तरीके से परीक्षित करने की आवश्यकता है। यह नई और चुनौती पूर्ण समस्याओं के साथ-साथ समृद्धि और सुरक्षा के लिए भी मुद्दा है।
पक्ष में तर्क
दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को उनके दल बदलने से रोका है। इससे सरकार को स्थिरता मिलती है। 1985 से पहले, कई बार यह देखा गया कि राजनेता अपने लाभ के लिए सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी दूसरे दल में शामिल हो जाते थे, जिसके कारण सरकार जल्दी गिर सकती थी।
इससे लोगों को उनकी विकास से जुड़ी महत्वपूर्ण योजनाओं का बहुत अधिक लाभ हो सकता है। यह विधि अनियमित चुनावों के कारण होने वाले व्यय को भी कम करने में मदद करती है। दलों को उनके विकास से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भी यह महत्त्वपूर्ण है।
विपक्ष में तर्क:
लोकतंत्र में संवाद की संस्कृति का अत्यंत महत्व है, परंतु दल-बदल विरोधी कानून जनता के उन विचारों को नहीं सुनने देता जो पार्टी की लाइन के विपरीत हो सकते हैं। इससे अंतर-दलीय लोकतंत्र पर असर पड़ता है और दल से जुड़े व्यक्तियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है।
यह कानून जनता की भलाई को नहीं बल्कि राजनीतिक दलों के शासन की व्यवस्था को बढ़ावा देता है। कई विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्रों में दल-बदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यदि जन प्रतिनिधि अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, तो भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं।
निष्कर्ष
समापन रूप से, दल-बदल विरोधी कानून एक महत्वपूर्ण कदम है जो राजनीतिक दलों के सदस्यों को विचारशीलता और स्थिरता के मार्ग पर अग्रसर करने का प्रयास कर रहा है। यह उन्हें उनकी जिम्मेदारियों के प्रति सजग रहने और अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए प्रेरित कर रहा है। हालांकि, इस कानून के प्रावधानों के सही और निष्पक्ष अनुमति में सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है ताकि यह जनता के हित में सफल रहे। अतः, दल-बदल विरोधी कानून राजनीतिक प्रक्रियाओं को सुधारने के माध्यम के रूप में महत्वपूर्ण और आवश्यक है।